Area:53,483 sq.km.
Population: 100.86 lakh
Capital: Dehradun(Temporary)
Districts: 13
Literacy Rate: 78.80%
Latitude: 28°43' N to 31°27' N
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Hit Counter 0000312325 Since: 01-01-2011
ड्रिप सिंचाई पद्धति:- ड्रिप सिंचाई पद्धति, सिंचाई की आधुनिकतम पद्धति है। इस पद्धति में पानी की अत्यधिक बचत होती है इस पद्धति के अन्तर्गत पानी पौधों की जड़ों में बूंद-बूंद करके लगाया जाता है। इस पद्धति में जल का अपव्यय नगण्य होता है। वह पद्धति दूर-दूर बोई जाने वाली फसलों जैसेंः- आम, अंगूल पपीता इत्यादि में अत्यधिक सफल पायी गयी है।
1. जल उपयोग
इफिसिएन्सी अत्यधिक, 95 प्रतिशत तक (50 से 70 प्रतिशत जल की
बचत)।
2. प्रति हैक्टेयर फसल उत्पादन अधिकतम (50
प्रतिशत तक उत्पादन में वृद्धि)
3. फर्टिलाइजर में बचत।
4. कम बीड् ग्रोथ।
5. ऊबड़-खाबड़ क्षेत्रों में बिना लेवलिंग किए
प्रयोग किया जा सकता है।
6. सेलाइन वाटर का प्रयोग किया जा सकता
है।
7. सिंचाई के साथ इण्टर-कल्टिवेशन
सम्भव।
8. 30 से 40 प्रतिशत ऊर्जा की बचत।
9. पद्धति के प्रयोग से पौधों की अच्छी
बाढ़।
1. प्रारम्भिक लागत
अत्यधिक।
2. सिस्टम के अवरूद्ध होने की समस्या।
3. केवल दूर-दूर बोई जाने वाली फसलों के लिए
उपयोगी।
4. सिस्टम की डिजाईन, इन्सटालेशन तथा
आॅपरेशन कठिन जिसके लिए प्रतिशक्षण की आवश्यकता।
1. पम्प या ओवर हेड
टैंक।
2. फिल्टर एवं कण्ट्रोल ईकाई।
3. फर्टिलाइजन टैंक।
4. प्लास्टिक पाईप सिस्टम।
5. मेन लाइन- पी0वी0सी0 या
एच0डी0पी0आई0
6. सब-मेन- पी0वी0सी0 या एल0एल0डी0पी0
7. लेटरल- एल0डी0पी0 या एल0एल0डी0पी0 (12mm
or 16mm)
8. ड्रिपर्स /माईक्रो टयूब /पी0पी0
/एल0डी0पी0ई0
9. माइक्रोजेट फिटिंग- पी0पी0
भूमिगत मेन लाइन सब-मेन लाइन में सामान्यतः पी0वी0सी0 पाइप का ही उपयोग किया जाता है। लेटरल लाइन और ड्रिपर्स सामान्यतः सतह पर रहते हैं तथा ड्रिपर का डिस्चार्ज 2 से 10 लीटर प्रति घण्टे तक होता है। माइक्रोजेट का डिस्चार्ज अधिक होता है। सिस्टम की लाइफ सामान्यतः 10 वर्ष ली जाती है।
ड्रिप सिंचाई सिस्टम एक लो प्रेशर सिस्टम है और यह सामान्यतः 1 किग्रा0/ सीमी02 पर कार्य करता है। इसकी डिजाईन अत्यधिक जटिल है। यदि सिस्टम की डिजाइन सही प्रकार से नहीं की गयी है तो सिस्टम ठीक प्रकार से कार्य नहीं करेगा और कुछ पौधों में पानी अधिक मात्रा में पहुंचेगा तथा कुछ पौधों में पानी पहुंचेगा ही नहीं। इसलिए ड्रिप सिस्टम की सफलता के लिए इसकी डिजाईन अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
सिस्टम की डिजाईन पौधों की जल की आवश्यकता मेन लाइन, सब-मेन लाइन तथा लेटरल लाइन के पाईप के व्यास तथा लम्बाई, मृदा के प्रकार, जमीन के स्लोप, ड्रिपर के डिस्चार्ज इत्यादि पर निर्भर करता है। इनमें से किसी एक में भी थोड़ा सा भी परिवर्तन होने पर डिजाईन भी परिवर्तित होती है
ड्रिप सिंचाई सिस्टम के सफल संचालन हेतु सही जल की आवश्यकता की गणना करना आवश्यक है क्योंकि इस पद्धति द्वारा पौधों की आवश्यकता के बराबर ही पानी दिया जाता हैै। पौधों को जल की आवश्यकता सीजनवार और प्रत्येक माह में बदलती रहती है और इसी के अनुसार सिस्टम के कार्यघण्टे संतुलित किये जाते हैं। विभिन्न फसलों हेतु जल की आवश्यकता निम्न सूत्र से ज्ञात की जा सकती हैः-
यदि ऐवापोरेशन रेट ज्ञात न हो तो निम्नांकित तालिका का प्रयोग किया जा सकता हैः-
सूचनाओं के अभाव में ऐवापोरेशन रेट 10
मिमि0 मानकर जल की आवश्यकता की गणना करना सुरक्षित रहता
है।-
यदि क्राप फैक्टर ज्ञान न हो तो इसे
0.60 से 0.70 माना जा सकता है।अधिकांश उद्यानी फसलों के लिए
केनोपी फैक्टर 40 से 50 प्रतिशत लिया जा सकता
है।
अधिक दूरी वाली फसलों जैसेः- नारियल
इत्यादि के लिए यह 25 से 30 प्रतिशत लिया जा सकता है।
इरीगेशन इफिशियेन्सी 0.85 से 0.95 या
85 प्रतिशत से 90 प्रतिशत तक ली जा सकती है।
1. स्थापना के समय
लेटरल लाइन सबमेन इत्यादि यथासम्भव डाऊन स्लोप में स्थापित
करनी चाहिए, जिससे नेट उर्जा का ह्रास कम से कम हो।
टैंक।
2. सामान्यतः सबमेन और मेन भूमिगत होनी
चाहिए।
3. ड्रिप सिस्टम फेन्स से सुरक्षित होना
चाहिए जिससे जानवर इत्यादि उसे डैमेज न करें।
4. पम्प फिल्टर, फर्टिलाइजर टैंक इत्यादि
पक्के प्लेटफार्म पर स्थापित किये जाने चाहिये और यदि पम्प
पानी किसी टैंक से उठाया जा रहा है तो यह ढका होना
चाहिये।
5. ड्रिपर्स की लोकेशन अत्यन्त महत्वपूर्ण
है यदि आस-पास पौधों वाली फसलें हैं जैसे पपीता, सब्जियाँ
इत्यादि जो ड्रिपर्स पौधे के पास ही लेटरल लाइन पर स्थापित
किये जाने चाहियें। यदि दूर-दूर पौधों वाली फसल है जैसे
नींबू, अमरूद, आम इत्यादि तो ड्रिपर्स एक लूप लाइन पर स्थापित
कर वृक्ष के तने से कुछ दूरी पर स्थापित करना चाहिये यदि
पुराना बगीचा है तो लूप लाइन को स्थापित करते समय यह ध्यान
रखना चाहिये कि वृक्ष की जड़ों का विस्तार कहाँ तक है। वृक्षों
और लताओं में ड्रिपर्स की स्थापना प्लाटिंग पैटर्न और दूरी पर
निर्भर करेगी उनमें ड्रिपर्स की स्थापना में यह सामान्य
सिद्धान्त है कि वृक्ष के चारों तरफ पूरा क्षेत्र निरन्तर
गीला रहना चाहिए और कोई भी सूखा स्थान नहीं छूटना
चाहिए।
6. सामान्यतः पौधों की एक लाइन के लिए एक
लेटरल का प्रयोग होना चाहिए।
7. मेन लाइन की स्थिति यथा सम्भव इस प्रकार
से होनी चाहिए कि उसके दानों ओर सिंचाई की जा सके।
8. सब प्लान्ट का साईज सामान्यतः 1 से 2 एकड़
रखना चाहिए।
ड्रिप सिंचाई सिस्टम में कोई भी मूविंग पार्ट नहीं होता है, इसलिए यदि सिस्टम का उपयोग सही प्रकार से किया जाये तो सिस्टम के पम्प की तरह मेन्टीनेन्स की आवश्यकता होती है। ड्रिप सिंचाई सिस्टम के आॅपरेशन एवं मेन्टीनेन्स हेतु निम्न बिन्दंओें को ध्यान में रखना चाहिए।
1. जिस जगह सिस्टम
लगा है, वहाँ पर जानवरों का जाना प्रतिबन्धित होना चाहिए
अन्यथा सिस्टम को नुकसान पहुंच सकता है।
2. सामान्यतः सिस्टम प्रतिदिन आधे घन्टे या
एक घन्टे के लिए चलाया जाता है। मौसम में अत्यधिक परिवर्तन की
दशा में आपरेशनल घन्टों में परिवर्तन आवश्यक हो जाता
है।
3. ड्रिप सिंचाई इकाई को अधिक उपयोगी बनाने
हेतु यह आवश्यक है कि सिस्टम की स्थापना के साथ मेन क्राॅप के
साथ ऐसी क्राॅप लें ली जायें जो तुरन्त रिटर्न देने लगे
जैसे:- मौसमी के बगीचे में प्रारम्भ के चार वर्षों में अनार
के पौधे भी लगाये जा सकते हैं। मौसमी के पौधे चार वर्ष में फल
देंगे और अनार के पौधे 1.5 वर्ष में ही फल देने लगेंगे।
4. ड्रिप सिंचाई के प्रयोग में पाइप एवं
ड्रिपर्स अवरूद्ध होने की मुख्य समस्या है इसके लिए प्रभावी
फिल्टर इकाई होने के साथ-साथ माह में एक बार फिल्टर की सफाई
किया जाना आवश्यक है। यदि फिल्टर में मिट्टी अधिक है तो
फिल्टर की सफाई और जल्दी की जा सकती है। इसके अतिरिक्त छः माह
में एक बार लेटरल लाइन और सबमेन इत्यादि की फ्लशिंग भी अवश्य
की जानी चाहिए। पानी के भौतिक एवं रसायनिक गुणों का परीक्षण
भी किया जाना आवश्यक है जिससे आवश्यकतानुसार क्लोरीनेशन,
एसिडीफिकेशन का निर्धारण किया जा सके।
5. ड्रिप लेटरल लाईन और ड्रिपर्स इत्यादि
प्लास्टिक मेटेरियल के बने होते हैं इसलिए इन पर किसी भी
धारदार चीज का प्रयोग नहीं होना चाहिए।
6. चूहों इत्यादि से बचाव के विशेष प्रबन्ध
आवश्यक हैं अन्यथा चूहे पाईप काट देते हैं इसलिए
एन्टीरोडेन्टस का प्रयोग आवश्यकतानुसार किया जाना
चाहिए।
7. ड्रिप सिंचाई पद्धति के प्रयोग से मृदा
का कम्पेक्शन नहीं होता हे इसलिए गुणाई की बहुत कम आवश्यकता
होती है। अतः गुणाई बहुत कम करनी चाहिए और गुणाई करते समय यह
ध्यान रखना चाहिए कि लेटरल और ड्रिपर डैमेज न हों।
8. ड्रिपर भूमि से कुछ ऊँचाई पर स्थापित
किये जाने चाहिए।
9. लेटरल लाइन के जो हिस्से खराब हो जाये
या ड्रिपर टूट जायें उन्हें बदल देना चाहिए।
फव्वारा द्वारा सिंचाई एक ऐसी पद्धति है जिसके द्वारा पानी का हवा में छिड़काव किया जाता है और यह पानी भूमि की सतह पर कृत्रिम वर्षा के रूप में गिरता है। पानी का छिड़काव दबाव द्वारा छोटी नोजल या ओरीफिस में प्राप्त किया जाता है। पानी का दबाव पम्प द्वारा भी प्राप्त किया जाता है। कृत्रिम वर्षा चूंकि धीमें.धीमें की जाती हैए इसलिए न तो कहीं पर पानी का जमाव होता है और न ही मिट्टी दबती है। इससे जमीन और हवा का सबसे सही अनुपात बना रहता है और बीजों में अंकुर भी जल्दी फूटते हैं।
यह एक बहुत ही प्रचलित विधि है जिसके द्वारा पानी की लगभग 30.50 प्रतिशत तक बचत की जा सकती है। देश में लगभग सात लाख हैक्टर भूमि में इसका प्रयोग हो रहा है। यह विधि बलुई मिट्टीए ऊंची.नीची जमीन तथा जहां पर पानी कम उपलब्ध है वहां पर प्रयोग की जाती है। इस विधि के द्वारा गेहूँए कपासए मूंगफलीए तम्बाकू तथा अन्य फसलों में सिंचाई की जा सकती है। इस विधि के द्वारा सिंचाई करने पर पौधों की देखरेख पर खर्च कम लगता है तथा रोग भी कम लगते हैं।
बौछारी सिंचाई प्रणाली के मुख्य घटक:- बौछारी सिंचाई पद्धति में मुख्य भाग पम्पए मुख्य नलीए बगल की नलीए पानी उठाने वाली नली एवं पानी छिड़कने वाला फुहारा होता है।
बौछारी सिंचाई प्रणाली की क्रिया विधि:-
बौछारी सिंचाई में नली में पानी दबाव के
साथ पम्प द्वारा भेजा जाता है जिससे फसल पर फुहारा द्वारा
छिड़काव होता है। मुख्य नली बगल की नलियों से जुड़ी होती है। बगल
की नलियों में पानी उठाने वाली नली जुड़ी होती है।
पानी उठाने वाली नली जिसे राइजर पाइप कहते हैए इसकी लम्बाई फसल
की लम्बाईए पर निर्भर करती है। क्योंकि फसल की ऊंचाई जितनी रहती
है राइजर पाइप उससे ऊंचा हमेशा रखना पड़ता है। इसे सामान्यतः फलस
की अधिकतम लम्बाई के बराबर होना चाहिए। पानी छिड़कने वाले हेड
घूमने वाले होते है जिन्हें पानी उठाने वाले पाइप से लगा दिया
जाता है।
पानी छिड़कने वाले यंत्र भूमि के पूरे क्षेत्रफल पर अर्थात फसल
के ऊपर पानी छिड़कते है। दबाव के कारण पानी काफी दूर तक छिड़क
जाता है। जिससे सिंचाई होती है।
इस विधि में पम्प यूनिटए रेणु छत्रकए दाबमापीए मुख्य लाइनए
उप.मुख्य लाइनए दाव नियंत्रक पेंचए राइजर लाइनए फव्वारा शीर्ष
तथा अन्तिम पेंच प्रयोग किए जाते हैं। इस विधि में इस्तेमाल
होने वाली मशीन के सभी भागों को चित्र में प्रदर्शित किया गया
है।
जहां पर सिंचाई के लिए खारा जल ही उपलब्ध होए वहां पर इस प्रणाली द्वारा ज्यादा पैदावार ली जा सकती है।
बौछारी सिंचाई से लाभ:-
• सतही सिंचाई में पानी खेत तक पहुँचने
में 15.20 प्रतिशत दूर तक अनुपयोगी रहता है।
• नहर के पानी से यह हानि 30.50 प्रतिशत तक बढ़ जाती है और सतही
सिंचाई में एकसा पानी नहीं पहुँचता जबकि बौछारी सिंचाई से
सिंचित क्षेत्रफल 1.5 - 2 गुना बढ़ जाता है अर्थात इस विधि से
सिंचाई करने पर 25.50 प्रतिशत तक पानी की सीधे बचत होती
है। • जब पानी वर्षा की भांति छिड़का जाता है तो भूमि पर
जल भराव नहीं होता है जिससे मिट्टी की पानी सोखने की दर की
अपेक्षा छिड़काव कम होने से पानी के बहने से हानि नहीं होती
है।
• जिन जगहों पर भूमि ऊंची.नीची रहती है वहॉ पर सतही सिंचाई संभव
नहीं हो पाती उन जगहों पर बौछारी सिंचाई वरदान साबित होती
है।
• बौछारी सिंचाई बलुई मिट्टी अधिक ढाल वाली तथा ऊंची.नीची जगहों
के लिए सर्वोत्तम विधि है।
• इस विधि से सिंचाई करने पर मृदा में नमी का उपयुक्त स्तर बना
रहता है जिसके कारण फसल की वृद्धि उपज और गुणवत्ता अच्छी रहती
है।
• इस विधि में सिंचाई के पानी के साथ घुलनशील उर्वरकए कीटनाशी
तथा जीवनाशी या खरपतवारनाशी दवाओं का भी प्रयोग आसानी से किया
जा सकता है।
• पाला पड़ने से पहले बौछारी सिंचाई पद्धति से सिंचाई करने पर
तापक्रम बढ़ जाने से फसल का पाले से नुकसान नहीं होता है।
• पानी की कमीए सीमित पानी की उपलब्धता वाले क्षेत्रों में
दुगना से तीन गुना क्षेत्रफल सतही सिंचाई की अपेक्षा किया जा
सकता है।
बौछारी सिंचाई के प्रयोग के समय एवं
प्रयोग के बाद परीक्षण कर लेना चाहिए और कुछ मुख्य सावधानियाँ
रखने से सेट अच्छी तरह चलता है। जैसे . प्रयोग होने वाला सिंचाई
जल स्वच्छ तथा बालू एवं अत्यधिक मात्रा घुलनशील तत्वों से युक्त
होना चाहिए तथा उर्वरकोंए फफूंदीध्खरपतवार नाशी आदि दवाओं के
प्रयोग के पश्चात सम्पूर्ण प्रणाली को स्वच्छ पानी से सफाई कर
लेना चाहिए।
प्लास्टिक वाशरों को आवश्यकतानुसार निरीक्षण करते रहना चाहिए और
बदलते रहना चाहिए। रबर सील को साफ रखना चाहिए तथा प्रयोग के बाद
अन्य फिटिंग भागों को अलग कर साफ करने के उपरान्त शुष्क स्थान
पर भण्डारित करना चाहिए।
� अधिक हवा होने पर पानी का वितरण समान
नहीं रह पाता है।
� पके हुए फलों को फुहारे से बचाना चहिए।
� पद्धति के सही उपयोग के लिए लगातार जलापूर्ति की आवश्यकता
होती है।
� पानी साफ होए उसमें रेतए कूड़ा करकट न हो और पानी खारा नहीं
होना चाहिए।
� इस पद्धति को चलाने के लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती
है।
� चिकनी मिट्टी और गर्म हवा वाले क्षेत्रों में इस पद्धति के
द्वारा सिंचाई नहीं की जा सकती।
�फव्वारा के जरिए की जाने वाली सिंचाई का लाभ लगभग हर किस्म की
फसल को पहुँचाया जा सकता हैं।
� नालियों या बांध बनाने की जरूरत नहीं पड़ती जिससे खेती के लिए
ज्यादा जमीन उपलब्ध हो जाती है।